कवि: अशर्फी लाल मिश्र
अशर्फी लाल मिश्र |
आज यहां कल वहां है डेरा,
कोउ नहिं जाने कहां सबेरा।
कभी मातु की गोद,
कभी किलकारी आंगन में।
कभी भ्रात के साथ,
कभी इकला बागन में।
सारा जीवन ऐसे बीता,
जैसे गली गली बंजारा।
आज यहां कल वहां है डेरा,
कोउ नहि जाने कहां सबेरा।
कोउ नहि जाने इस जग में,
कब कौन किसका बने सहारा।
जीवन जन्म-मरण का फेरा,
आज यहां कल वहां है डेरा।
Author : Ashrafi Lal Mishra, Akbarpur,Kanpur .
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१९-०२ -२०२२ ) को
'मान बढ़े सज्जन संगति से'(चर्चा अंक-४३४५) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
अनिता जी बहुत बहुत आभार।
हटाएंबहुत खूब।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद।
हटाएंवाह!बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंशुभा जी बहुत बहुत आभार।
हटाएंमिश्र जी, नमस्ते. रफ़ी साहब का गीत याद दिला दिया आपने ....बस्ती-बस्ती परबत-परबत गाता जाए बंजारा , लेकर मन का इकतारा. लोकगीत जैसी मिठास.
जवाब देंहटाएंसुंदर टिप्पणी के लिये आप का बहुत बहुत आभार।
हटाएंजीवन के सत्य का सुंदर वर्णन, गहन भाव रचना।
जवाब देंहटाएंआध्यात्मिक सी।
टिप्पणी में आप की योग्यता परिलक्षित है। शानदार टिप्पणी के लिए आप का हृदय से बहुत बहुत आभार।
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