गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

Valmiki Ramayan (Ravana-Sita dialogue in Ashok Vatika)

             
Blogger : Asharfi Lal Mishra

 











                                                   
                                                                 Poet Valmiki
                                                               
The original matter is taken from  Ramayna written by poet Valmiki  (Translation  available from Sanskrit to  English )
                                                                             
Ravana said, keeping an offer to Sita
                                                                         
                                                 Hanuman  finds Sita  in Ashok   Vatika                                             
कामये त्वां विशालाक्षि बहुमन्यस्व मां प्रिये। 
भव  मैथिलि भार्या मे मोहमेनं विसर्जय।।
Ravana said to sita~~ O wide-eyed one,I love you; O dear one ,honour  me ;O Sita ,become my wife; leave this folly.
बह्वीनांमुत्तंस्त्रीणाम्  आहृतानामितस्ततः
सर्वासामेव   भद्रं  ते   ममाग्रमहिषी    भव।
Good betide you ;become my foremost Queen among all these choice damsels who have been brought from far and near .
ऋद्धि ममानुपश्य त्वं श्रियं भद्रे यशश्च मे। 
किं करिष्यसि रामेण सुभगे चीरवाससा।।
(O good one ,look at my prosperity ,fortune and fame. O fortunate one ,what will you do with Ram,clad in dark)
निक्षिप्तविजयो  रामो गतश्रीर्वनगोचराः। 
व्रती स्थण्डिलशायी च शङ्के जीवति वा न वा।
Ram is now devoid of victory and deprived of fortune and is a wanderer in the forest .He is practising  and sleeps on the bare earth.I doubt whether he lives or not.
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा सीता रौद्रस्य रक्षसः। 
तृणमन्तरवः  कृत्वा प्रत्युवाच शुचिस्मिता।।
Hearing these words of the terrible Rakshasa ,Sita threw a blade of grass between , and smiling innocently , replied 
                                                                              
                                         Ravana  angry with Sita in Ashok Vatika, Lanka

                                                                        

                                         Sita -Ravana  dialogue in Ashok Vatika, Lanka

Sita  boldly replied to Ravana~~ 
निवर्तय मनोः मत्तः स्वजने  क्रियतां मनः।।
Turn back your desire from me .Let it be fixed on your own people.
न मां प्रार्थयितुं युक्तं सुसिद्धिमित्र पापकृत। 
अकार्य न  मया कार्यमेकपल्या विगर्हितम।।
It is not proper for you to solicit me ,any more than for a sinner to seek final emancipation.Devoted to one husband ,the forbidden deed may not be done by me.
नाहमौपयिकी भार्या परभार्या सती तव।
I am no fit wife to you being the faithful wife of another.
साधु धर्ममवेक्षस्व साधु साधुव्रतं चर। 
यथा तव तथान्येषां दारा रक्ष्या निशाचरः। 
Look to  dharma  carefully; follow carefully the rule of the good; O Rakshasa ,the wives the others must be protected like your own.
इह सन्तो न वा सन्ति सतो वा नानुवर्तसे। 
तथा हि विपरीता ते बुद्धिराचारवर्जिता।।
Either there are no good people here,or if there are,you don`t follow them ,seeing that your bent of mind is perverse and contrary to righteousness .
विदितः स हि धर्मज्ञः शरणागतवत्सलः। 
तेन मैत्री भवतु ते यदि जीवितुमिच्छसि।।
That righteous-minded Rama is indeed well known to be kind to those who seek his refuge.Therefore,if you desire to live,his friendship with him be established.
मां चास्मै प्रयतो भूत्वा निर्यातयितुमर्हसि। 
एवं हि ते भवेत् स्वस्ति संप्रदाय रघूत्तमे।।
It behoves you therefore to restrain yourself and take me back to him .If you render me thus to Rama ,the best of Raghus,good will attend you.
अन्यथा त्वं हि कुर्वाणो वधं प्राप्स्यसि रावण।।
O Ravana ,if you do otherwise,you will meet your death.
   [By: Asharfi Lal Mishra]                                                
                                                          

सोमवार, 17 अप्रैल 2017

बारहमासा : नागमती के विरह की अद्भुत पीड़ा

Asharfi Lal Mishra








                                                                       
                                                                       

                                                      
रानी नागमती तोते से बात करते हुए                                                       

नागमती (रत्नसेन की विवाहिता पत्नी ) अपने प्रियतम रत्नसेन  के वियोग में व्याकुल है। रत्नसेन जब से चित्तौड़ छोड़ कर गए हैं तब से वापस नहीं आये , नागमती को ऐसा लगता है कि शायद हमारे प्रियतम किसी अन्य युवती के प्रेम -जाल के बन्धन में बंध गए हैं। नागमती कहती है :

नागमती चितउर पथ हेरा। पिउ जो गए पुनि कीन्ह न फेरा।।
नागर काहु नारि  बस     परा। तेइ मोर   पिउ          मोसो     हरा।। 
सुआ काल होइ लेइगा   पीऊ। पिउ नहिं जात ,जात  बरु        जीऊ।।
भयउ नरायन      बावन करा। राज करत   राजा      बलि     छरा।।
करन  पास  लीन्हेउ कै   छंदू। बिप्र रूप धरि    झिलमिल        इंदु।।
मानत भोग गोपिचंद   भोगी। लेइ   अपसवा      जलंधर     जोगी।।
लेइगा कृस्नहि गरुड़   अलोपी।कठिन बिछोह ,जयहिं किमि  गोपी।।
          सारस जोरी कौन हरि ,मारि बियाधा   लीन्ह ?
         झुरि झुरि पींजर हौं भई ,बिरह काल मोहिं दीन्ह।।
आगे नागमती अपने प्रियतम - विरह में व्याकुल होकर अपने हृदय की पीड़ा को व्यक्त करती हुई कहती है :

पिउ बियोग अस बाउर जीऊ। पपिहा निति बोले पिउ पिऊ।।
अधिक काम दाधै सो रामा। हरि लेइ सुवा गएउ पिउ नामा।।
बिरह बान तस लाग न डोली। रकत पसीज ,भीजि गइ चोली।।
सूखा हिया ,हार भा     भारी। हरे हरे प्रान तजहिं   सब नारी।।
खन एक आव पेट महँ!साँसा। खनहिं जाइ जिउ ,होइ निरासा।।
पवन डोलावहिं ,सींचहिं चोला। पहर एक समुझहिं मुख बोला।।
प्रान    पयान  होत  को राखा? को सुनाव प्रीतम कै    भाखा।।

        आहि जो मारै बिरह  कै ,आगि उठै तेहि लागि। 
        हंस जो रहा सरीर महँ ,पाँख जरा ,गा  भागि।।

इस प्रकार निराश और विरह -पीड़ा से व्याकुल नागमती को उसकी सखियाँ धैर्य धारण करने के लिए कहतीं हैं 
पाट महादेइ! हिये न हारू । समुझि जीउ, चित चेतु सँभारू॥
भौंर कँवल सँग होइ मेरावा । सँवरि नेह मालति पहँ आवा॥
पपिहै स्वाती सौं जस प्रीती । टेकु पियास, बाँधाु मन थीती॥
धरतिहि जैस गगन सौं नेहा । पलटि आव बरषा ऋतु मेहा॥
पुनि बसंत ऋतु आव नवेली । सो रस, सो मधुकर , सो बोली ॥
जिनि अस जीव करसि तू बारी। यह तरिवर पुनि उठिहि सँवारी ॥
दिन दस बिनु जल सूखि बिधंसा । पुनि सोइ सरवर सोई हंसा॥

         मिलहिं जो बिछुरे साजन, अंकम भेंटि गहंत ।
         तपनि मृगसिरा जे सहैं, ते    अद्रा   पलुहंत॥
                                                                      
                                                                     
मलिक मुहम्मद जायसी 
                                                                                          
जायसी ने अपने महाकाव्य पद्मावत में वर्णित बारहमासा में नागमती की विरह- वेदना की  पीड़ा को  वर्ष के प्रत्येक मास में होने वाली  प्राकृतिक गतिविधियों से सम्बद्ध कर दिया है। आगे वर्ष के प्रत्येक माह में  नागमती की विरह -वेदना दृष्टव्य है :

1  -आषाढ़  :

चढ़ा असाढ़ ,गगन घन गाजा। साजा विरह दुंद दल बाजा।।
धूम साम, धौरे घन धाए। सेत धजा बग पाँति देखाए।। 
खड्ग बीजु चमकै चहुँ ओरा। बुंद बान बरसहिं घन घोरा।।
ओनई घटा आइ चहुँ फेरी। कंत !  उबारु मदन हौं घेरी।।
दादुर मोर कोकिला ,पीऊ। घिरै बीजु, घट रहै न जीऊ।।
पुष्य नखत सिर  ऊपर आवा। हौं बिनु नाह ,मंदिर को ?
अद्रा लाग लागि भुइँ लेई। मोहिं बिनु पिउ को आदर देई।।
       जिन घर कंता ते सुखी ,तिन्ह गारो औ गर्व। 
      कंत पियारा बाहिरै ,हम सुख भूला सर्व।।

2 -श्रावण  :

सावन बरस मेह अति पानी। भरनि परी ,हौं विरह झुरानी।।
 लाग पुनरबसु पीउ न देखा। भइ बाउरि ,कहँ कंत सरेखा।।
रक्त कै आँसु परहिं भुइँ टूटी। रेंगि चली जस बीरबहूटी।।
सखिन्ह रचा पिउ संग हिंडोला। हरियर भूमि कुसुम्भी चोला।।
हिय हिंडोल अस डोलै मोरा। बिरह भुलाइ देइ झकझोरा।।
बाट असूझ अथाह गँभीरी। जिउ बाउर भा फिरै भँभीरी।।
जग जल बूड़ जहाँ लगि ताकी। मोरि नाव खेवक बिनु थाकी।।
        परबत समुद अगम बिच ,बीहड़ घन बन ढाँख।
        किमि कै भेटौं कंत तुम्ह ? ना मोहिं पाँव न पंख।।

3 -भाद्रपद :

भा भादों दूभर अति भारी। कैसे भरौं रैनि अँधियारी।।
मंदिर सून पिउ अनतै बसा। सेज नागिनी फिरि फिरि डसा।।
रही अकेलि गहे एक पाटी। नैन पसारि मरौं हिय फाटी।।
चमक बीजु घन तरजि तरासा। बिरह काल होइ जीउ गरासा।।
बरसै मघा झकोरि झकोरी। मोरि दुइ नैन चुवैं जस ओरी।।
धनि सूखै भरे भादौं माहाँ। अबहुँ न आएन्हि सीचेन्हि नाहाँ।।
 पुरबा लाग भूमि जल पूरी। आक जवास भई तस    झूरी।।
        जल थल भरे अपूर सब ,धरति गगन मिलि एक। 
        धनि जोबन अवगाह महँ दे बूड़त पिउ ! टेक।।

4 -आश्विन :

लाग कुवार ,नीर जग घटा। अबहुँ आउ ,कंत ! तन लटा।।
तोहि देखे पिउ ! पलुहै कया। उतरा चीतु बहुरि करु मया।।
चित्रा मित्र मीन कर आवा। पपिहा पीउ पुकारत पावा।।
उआ अगस्त ,हस्ति घन गाजा। तुरय पलानि चढ़े रन राजा।।
स्वाति बूँद चातक  मुख़ परे। समुद सीप मोती सब भरे।।
सरवर सँवरि हंस चलि आये। सारस कुरलहिं ,खँजन दिखाए।।
भा परगास , बाँस बन फूले। कंत न फिरे बिदेसहिं भूले।।
        बिरह हस्ति तन सालै ,घाय करै चित चूर। 
       बेगि आइ पिउ ! बाजहु ,गाजहु होइ सदूर।।

5 -कार्तिक :

कातिक सरद चंद उजियारी। जग सीतल ,हौं बिरहै जारी।।
चौदह करा चाँद परगासा। जनहुँ जरै सब धरति अकासा।। 
तन मन सेज जरै अगिदाहू। सब कह चंद ,भएहु मोहि राहू।।
चहूँ खंड लागै अँधियारा। जौ घर नाहीं कंत पियारा।।
,अबहुँ ,निठुर !आउ एहि बारा। परब देवारी होइ संसारा।।
सखि झूमक गावैं अंग मोरी। हौं झुराव बिछुरी मोरि जोरी।।
जेहि घर पिउ सो मनोरथ पूजा। मो कह बिरह ,सवति दुःख दूजा।।
            सखि मानें तिउहार सब ,गाइ देवारी खेल। 
            हौं का गावौं कंत बिनु ,रही छार सर मेलि।।

 6 -मार्गशीर्ष :

अगहन दिवस घटा ,निसि बाढ़ी। दूभर रैनि ,जाइ किमि गाढ़ी।।
अब यहि बिरह भा राती। जरौ बिरह जस दीपक बाती।। 
काँपै हिया जनावै सीऊ। तो पै जाइ होइ संग     पीउ।।
घर घर चीर रचे सब काहू। मोर रूप रंग लेइगा नाहू।।
पलटि न बहुरा गा जो बिछोई। अबहुँ फिरै ,फिरै रंग सोई।।
बज्र अगिनि बिरहिन हिय जारा।सुलुगि,सुलुगि दगधै होइ छारा।।
यह दुःख दरद न जानै   कंतू।     जोवन जनम करै भसमंतू।।
      पिउ सों कहेउ संदेसडा ,    हे  भौंरा !    हे  काग !
      सो धनि बिरहै जरि मुई ,तेहि क धुवाँ हम्ह लाग।।

7 -पौष :

पूस जाड़ थर थर तन काँपा। सुरुजु जाइ लंका दिशि चाँपा।।
बिरह बाढ़ दारुन भा सीऊ। कँपि कँपि मरौं ,लेइ हरि जीऊ।।
कंत कहाँ लागौं ओहि हियरे। पंथ अपार , सूझ नहिं नियरे।।
सौर  सपेती  आवै   जूड़ी। जानहु   सेज   हिवंचल     बूड़ी।।
चकई निसि बिछुरै दिन मिला हौं दिन राति बिरह कोकिला।।
रैनि अकेलि साथ नहिं सखी। कैसे जियै  बिछोही     पंखी।।
बिरह सचान भएउ तन  जाड़ा। जियत खाइ औ मुये न छाँड़ा।।
         रकत ढुरा माँसू गरा , हाड़  भएउ  सब  संख। 
         धनि सारस होइ  ररि मुई ,पीऊ समेटहिं पंख।।

8 -माघ :


लागेउ माघ ,परै अब पाला। बिरहा काल भएउ जड़काला।।

पहल पहल   तन रुई झाँपै। हहरि हहरि अधिकौ हिय काँपै।।
आइ सूर होइ तपु ,रे नाहा। तोहि बिनु जाड़ न छूटै माहा।।
एहि माह  उपजै     रसमूलू। तू सो भौंर ,मोर जोवन फूलू।।
नैन चुवहिं जस महवट नीरू। तोहि बिनु अंग लाग सर चीरु।।
टप टप बूँद परहिं जस ओला। बिरह पवन होइ मारै झोला।।
केहि क सिंगार को पहिरु पटोरा। गीउ न हार। रही होइ डोरा।।
      तुम बिनु काँपै धनि हिया ,तन तिनउर भा डोल। 
      तेहि पर बी`बिरह जराइ कै,चहै उडावा झोल।।

9 -फाल्गुन :

 फागुन पवन झकोरा बहा। चौगुन सीउ जाइ नहिं सहा।।
तन जस पियर पात भा मोरा। तेहि पर बिरह देहि झकझोरा।।
तरिवर झरहिं बन ढाखा। भइ ओनंत फूलि फरि साखा।।
करहिं बनसपति हिये हुलासू। मो कह भा दून उदासू।।
फागु करहिं सब चाँचरि जोरी। मोहिं तन लाइ दीन्ह जस होरी।।
जो पै पीउ जरत अस पावा। जरत मरत मोहिं रोष न आवा।।
राति दिवस सब यह जिउ मोरे। लगौं निहोर कंत अब तोरे।।
         यह तन जारौं छार कै ,कहउँ कि पवन उड़ाव। 
         मकु तेहि मारग उड़ि परै ,कंत धरैं जहँ पाव।।


10 -चैत्र :

चैत बसंता होइ    धमारी। मोहिं लेखे संसार उजारी।।
पंचम बिरह पंच सर मारै। रकत रोइ सगरौ बन   ढ़ारै।.
बूढ़ि उठे सब तरिवर पाता। भीजि मजीठ ,टेसु बन राता।।
बौरे आम फरें अब    लागे। अबहुँ आउ घर ,कंत  सभागे।।
सहस भाव फूली बनसपती। मधुकर घूमहिं सँवरि मालती।।
मो कह फूल भये सब काँटे। दिस्टि परत जस लागहिं चाँटे।।
फिर जोवन भए नारँग साखा।सुआ बिरह अब जाइ न राखा।।
         घिरिनि परेवा होइ पिउ ! आउ बेगि परु टूटि। 
         नारि पराए हाथ है ,तोहि बिनु   पाव न छूटि।।   



11 -वैशाख :

भा बैसाख  तपनि अति लागी। चोआ चीर चँदन भा आगी।। 
सूरज जरत हिवंचल ताका। बिरह बजागि सौंह रथ हाँका।।
जरत बजागिनि करु,पिऊ छाहाँ। आइ बुझाउ अंगारन्ह माहाँ।।
तोहि दरसन होइ सीतल नारी। आइ आगि तें करु फुलवारी।।
लागिउँ जरै ,जरै जस भारू। फिर फिर भूँजेसि तजेउँ न बारू।।
सरवर   हिया घटत निति  जाई। टूक टूक होइ कै   बिहराई।।
बिहरत हिया करहु ,पिउ ! टेका। दीठि दवँगरा मेरवहु एका।।
      कँवल जो बिगसा मानसर ,बिनु जल गयउ सुखाइ। 
      कबहुँ बेलि फिरि     पलुहै ,जाऊ पिऊ सींचै    आइ।।

12 -ज्येष्ठ :

जेठ जरै  जग, चलै  लुवारा। उठहिं  बवंडर परहिं    अँगारा। 
बिरह गाजि हनुवँत होइ जागा। लंकादाह करै तनु   लागा।।
चारिहु पवन     झकोरै  आगी। लंका दाहि  पलंका लागी।।
दहि भइ साम नदी कालिंदी। बिरह क आगि कठिन अति मंदी।।
उठै आगि औ आवै    आँधी। नैन न सूझ मरौं दुःख बाँधी।। 
अधजर भयउँ ,मासु तन सूखा। लागेउ बिरह काल होइ भूखा।।
माँसु खाइ सब हाडन्ह लागै। अबहुँ आउ ,आवत सुनि भागै।।

       गिरि, समुद्र ,ससि ,मेघ ,रवि ,सहि न सकहिं यह आगि। 
       मुहमद   सती    सराहिये ,जरै जो अस  पिउ    लागि।।

तपै लागि अब जेठ असाढ़ी। मोहि पिउ बिनु छाजनि भइ गाढ़ी।।
तन  तिनउर भा ,झूरौं खरी। भइ बरखा ,दुख आगरि  जरी।।
बंध नाहिं औ कंध न कोई। बात न आव   कहौं  का   रोईं ?
साँठि नाठि  जग़ बात  पूंछा ?बिनु जिउ फिरै मूँज तनु छूँछा।।
भई दुहेली टेक बिहूनी बिहूनी। थाँभ नाहिं उठि सकै न थूनी।।
बरसै  मेघ   चुवहिं     नैनाहा। छपर छपर होइ रहि बिनु नाहा।।
कोरौं कहाँ ठाट    नव साजा? तुम बिनु कंत न छाजनि छाजा।।

अबहुँ मया दिस्टि करि ,नाह निठुर !घर आउ। 
मँदिर उजार होत है ,नव कै   आइ     बसाउ।।
[द्वारा प्रस्तुत : अशर्फी लाल मिश्र ]

बुधवार, 12 अप्रैल 2017

हिन्दी - काव्य में विरह की अभिव्यक्ति

Asharfi Lal Mishra








                          
                                  

  वियोगी   होगा  पहला कवि ,आह से  उपजा  होगा   गान। 
  निकलकर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान।।~~ पंत 

                   साहित्य का सर्वोत्कृष्ट रस श्रृंगार है और इस  श्रृंगार का भी परिष्कृत रूप विरह -वर्णन में  मिलता  है। श्रृंगार के संयोग पक्ष में तो बाह्य चेष्टाओं और काम क्रीड़ाओं की ही अधिकता होती है ,ह्रदय की सूक्ष्म भाव वृत्तियों का प्रकाशन और काम से मुक्त प्रेम के शुद्ध रूप का प्रकटीकरण वियोग  ही होता है।


सामान्यतः वियोग  के चार रूप एवं दस काम -दशाएँ स्वीकार की जाती हैं। चार रूप ये हैं --
(१ )प्रथमानुराग,(२) मान ,(३)प्रवास और (४) करुण।

आधुनिक दृष्टिकोण से इन चार रूपों का विवेचन इस प्रकार किया जा सकता है ;

 (१ )प्रथमानुराग: नायक और नायिका के प्रारम्भिक प्रेम को  प्रथमानुराग  कहते हैं।इस स्थिति में नायक और नायिका एक दूसरे से मिल नहीं पाते ,अतः उनके विरह में प्रेम की इस नवीन अनुभूति का उल्लास एवं मिलन -सुख की मधुर कल्पनाएं ही अधिक होती हैं। इसमें विरह -वेदना की वह गम्भीरता नहीं होती ,जो कि अन्य कोटि के विरह में पाई जाती है।

(२)नायिका के के रुष्ट हो जाने पर दोनों के मिलन -सुख में जो अन्तर आ जाता है उसी को मान -विरह  कहा गया है। व्यापक दृष्टि से कहा  जा सकता है कि जब नायक या नायिका में से कोई एक रुष्ट होकर या अप्रसन्नता के कारन थोड़ समय के लिए विमुख हो जाता है ,तो दूसरे को जिस वेदना की अनुभूति होती है , वही  मान -जन्य  विरह है। संस्कृत व हिंदी के कुछ कवियों ने मान के अन्तर्गत केवल नायिका के ही रुष्ट होने का वर्णन किया है ,नायक की अनुभूतियों की उन्होंने उपेक्षा की है ,जो उचित नहीं।

(३)नायक या नायिका के दूर चले जाने पर जिस विरह की अनुभूति होती है उसे प्रवास  की कोटि में रखा गया है। 

(४)नायक या नायिका में से किसी की मृत्यु हो जाने कारण जिस शोक की अनुभूति होती है ,उसे करुण की संज्ञा दी गई है वस्तुतः इस प्रकार के शोक को या करुण  भाव को शृंगार रस से भिन्न करुण रस में ही स्थान दिया जाना चाहिए।
                                                       
                                                         पुरुरवा और उर्वशी 
पूर्ववर्ती भारतीय साहित्य में विरह -वर्णन :

भारत की नहीं ~~~
 विश्व की प्राचीनतम उपलब्ध रचना ऋग्वेद  है। इसके दसवें मंडल में ९५ वे सूक्ति  में उर्वशीऔर पुरुरवा  का संवाद वर्णित है जो कि विरह -वेदना की उक्तियों से भरपूर है। राजा पुरुरवा की प्रेयसी उर्वशी किसी वात  पर रुष्ट होकर उसे छोड़ कर चली जाती है। पुरुरवा उसके विरह में पागलों  की तरह उन्मत्त होकर उसे ढूंढ़ता हुआ मानसरोवर के तट पर पहुँचता है। ,जहां उर्वशी अपनी सखियों के साथ आमोद -प्रमोद में व्यस्त मिलती है। हे निष्ठुर !ठहर !ठहर ! इन शब्दों से अपनी बात आरम्भ करता हुआ पुरुरवा अपने विरह -व्यथित ह्रदय की दशा अत्यंत करुणोत्पादक  वर्णन करता है :-

                                   हये जाये मनसा तिष्ठ घोरे वचांसि मिश्रा कृष्णवावहै नु। 
                                   न  नौ मंत्रा अनुदितास एते  मयस्करंपरतरे चनाहन।।

                "अर्थात हे निष्ठुर !ठहर !ठहर !आ ,हम अपनी परस्पर दृढ़ सम्बन्ध बनाये रखने की प्रतिज्ञा को पूरी करें ,अन्यथा हमारा जीवन सुखी नहीं  रहेगा।"
                 जब उर्वशी पर पुरुरवा  के इन शब्दों का कोई असर नहीं हुआ ,तो वह विरह -वेदनापूर्ण ह्रदय की अवस्था का चित्रण करता हुआ कहता है --
तेरे विरह में मेरा मन युद्ध में भी नहीं लगता। मैं अब इतना समर्थ हूँ कि विजय -प्राप्ति के लिए शत्रुओं पर बाण भी नहीं चला सकता। अब शत्रुओं से भूमि ,धन आदि छीनकर उनका उपयोग भी नहीं कर पाता। मेरे उस सिंहनाद को जिसे सुनकर शत्रु काँप जाते थे ,अब कोई नहीं सुनता। "

                   पुरुरवा के इन शब्दों का भी निष्ठुर ,अल्हड ,मद-विभोर सुंदरी उर्वशी पर  नहीं पड़ता। वह  गर्व और  ओत-प्रोत शब्दों में उत्तर देती हुई कहती है ~~

 "पुरुरवा क्या रखा है तुम्हारी बातों में। जिस प्रकार   सूर्य सदा उषा के पीछे -पीछे दौड़ता रहता है ,उसी प्रकार तुम भी सदा मेरे पीछे पड़े रहते हो ,पर मैं वायु के समान हूँ ,मुझे कौन वश में कर सकता है। "

अंत में पुरुरवा हताश होकर कहता है ~~

                                          सुदेवो अद्य प्रपतेदनावृत्परावतं परमां गन्त्वा उ। 
                                          +                 +                    +                      +

                       अर्थात "हे उर्वशी !तुम्हारे विना मैं  जीवित  नहीं रह सकूंगा। मैं किसी दूर देश में जाकर अपने शरीर को आवरण हीन करके  हिंसक पशुओं के आगे लेट जाऊंगा। बलवान भेड़िये मेरे शरीर को चीरकर टुकड़े -टुकड़े कर देंगे। "आश्चर्य है कि प्रेमी की मृत्यु के इस करुण  दृश्य की कल्पना से भी उस सुंदरी का ह्रदय नहीं पसीजता। वस्तुतः यह प्रणय -संवाद मान -जन्य विरह का सुन्दर उदहारण है। इसमें पुरुरवा की विरह -वेदना की अभिव्यक्ति अत्यंत प्रभावशाली शब्दों में हुई है।
 आगे चलकर रामायण  और महाभारत  के प्रासंगिक प्रेमाख्यान में विरह की व्यंजना अत्यंत उत्कृष्ट शैली में हुई है। विशेषतः                                                                                                                                       

                                                                    दमयंती   
                                                                     

                                                                      नल - दमयन्ती 

                            महाभारत के राजा संवरण एवं कुमारी तप्ता  के प्रणयाख्यान और नल -दमयंती -आख्यान में विरह के चारों रूपों ~~ पूर्वानुराग ,संयोग ,वियोग एवं  चित्रण प्रभावोत्पादक शब्दों में मिलता है। आदि से लेकर अन्त  तक यह आख्यान कामुकता की पंकिल भूमि से असंयुक्त रहता है,उसमे शारीरिक चंचलता के खिन भी दर्शन नहीं होते।

                      कालिदास  के   कुमारसम्भव  में पूर्वानुराग का चित्रण सुंदर रूप में हुआ है। उनका  मेघदूत  तो  वियोगी  हृदय  का ही सन्देश है। यक्ष के संदेश में प्रणय -वेदना के स्थान पर सम्भोग -आकांक्षा के दर्शन होते हैं अतः इसमें कामुकता का मिश्रण भी दिखाई पड़ता है।
                           संस्कृत के गद्य काव्य ~~ वासवदत्ता ,दशकुमारचरित ,कादम्बरी आदि में प्रेम और विरह का भव्य स्वरूप उपलब्ध होता है। इसमें सर्वोत्कृष्ट कादम्बरी  है। इसमें दो प्रेम कथानकों को गूंथकर एक साथ उपस्थित  गया है। पहले की नायिका है ~~ महाश्वेता और दूसरे की कादम्बरी। दोनों के नायक क्रमशः पुण्डरीक और चन्द्रापीड  हैं, जो पूर्वानुराग की असह्य वेदना से छटपटाकर प्राण त्याग देते हैं ,किन्तु दोनों नायिकाएं अपने अपूर्व  और तपस्या के बल पर उनके  पुनर्जन्म की प्रतीक्षा करती हुई अन्त में उन्हें प्राप्त कर लेती हैं।

प्राकृत एवं अपभ्रंश काव्य में विरह वर्णन :

प्राकृत की गाथा सप्तशती और बज्जालग्ग में विरह -वर्णन अनेक गाथाओं में हुआ है। विरहणी की दुर्दशा का निरूपण करते हुए गाथा सप्तशतीकार ने लिखा है ~~

क्षण में ताप ,क्षण में पसीना ,क्षण में ठिठुरन ,क्षण में रोमांच !हाय यह प्रिय -विरह सन्निपात रोग की तरह दुसह्य  है। हे पथिक ,इस तालाब का पानी मत पियो ,इसमें प्रोषित भर्तृका बधू  ने स्नान किया है,उसकी विरहाग्नि से इसका पानी तप गया है। 

अपभ्रंस के मुक्तक काव्यों में भी विरहनुभति की व्यंजना अत्यंत मार्मिक रूपसे हुई है। विशेषतः संदेश रासक  तो विशुद्ध विरह -सम्बन्धी काव्य हैं। इसमें नायिका किसी पथिक के हाथ अपने प्रवासी प्रिय को सन्देश भेजती है कि ~~

                                         कहउ पहिय ! कि ण कहउ कहिसु किं कहिय -यण। 
                                         जिण   किय   एह   अवत्थ   णेहरइ -रहिय -यण।। 
                                        +                              +                             +
                                         जिणि हउ  बिरहह कुहरि एव करि घल्लिया।
                                        अत्थलोहि   अकयत्थि  इकल्लिय मिल्हिया । 

                      हे पथिक! क्या कहूँ और क्या न कहूँ ---भला ! जिस स्नेहहीन ने मेरी यह दशा कर दी उसे क्या कहा जाय !+++
उस अर्थलोभी ,अकृतार्थ ने इस विरह -कुहरे में मुझ अकेली को छोड़ दिया है। आगे चलकर अपनी दुखपूर्ण स्थिति का वर्णन करती हुई वह विरहणी कहती है;-

                        जई अंबरु   उग्गिलइ रे पुणि रंगियइ  , अह  निन्नेहउ  अंगु ,होइ आभंगियइ। 
                       अह  हारिज्जइ दविणु, जिणिवि पुणु भिट्ठियइ ,पिय विरतु हई चित्त पहिया !किम वट्टियइ। । 

                    अर्थात यदि वस्त्र अपना रंग छोड़ दे तो पुनः रँगा  जा सकता है। यदि शरीर चिकनाई रहित हो जाय तो उसे पुनः चिकना  किया   जा सकता है। यदि धन हर जाय तो उसे पुनः जीतकर प्राप्त किया जा सकता है। पर हे पथिक !जब प्रिय का चित्त विरक्त हो जाय तो उसे पुनः किस प्रकार लौटाया जाय। 

(Writer:Ashrafi Lal Mishra)

विद्यापति का विरह वर्णन :-

                        हिंदी के प्रारम्भिक कवियों में महाकवि विद्यापतिअपने सौंदर्य -प्रेम एवं विरह के गीतों के लिए बहुत प्रसिद्द हैं। उनके काव्य में पूर्वानुराग एवं विरह की विभिन्न अनुभूतियों का चित्रण अत्यंत मार्मिक रूप में  हुआ है। प्रेमकी प्रारम्भिक अवस्था में नायकराज की क्या दशा  हो गई  है ,द्रष्टव्य है ~~
                                                                                
                                                             राधा और कृष्ण

                                                               पथ   गति   पेखल   मो राधा !
                                                               तखनुक भाव परान पये पीड़लि ,
                                                               रहल   कुमुद   निधि    साधा !!

                       अर्थात मैंने राधा को राह के मध्य में देखा। उसी क्षण  मेरे प्राण ही घायल हो गए। उसी समय से उस कुमुद -निधि की साध बनी हुयी है।राधा के प्रेम में कृष्ण की विह्वलता का चित्रण देखिये~~

                                           आसायें मन्दिर निसि गमाबए ,सूख  न सूत संयान !
                                          जखन जतए जाहि निहारिये ,ताहि ताहि तोहि बहन !!

               नायक की भाँति नायिका की विरह -व्यथा की व्यंजना भी विद्यापति ने की है। उनकी विरहणियों को अवस्था के अनुसार दो श्रेणियों में बाँट सकते हैं~~ (१)नववयस्क तरुणियाँ  ,(२)प्रौढ़ाएँ।
 प्रथम श्रेणी की वियोगिनियों में वासना -पूर्ति की लिप्सा अध्क है तथा उनमें प्रणय -जन्य वेदना का आभाव है देखिये ~~

                                            कत दिन पिय  मोर पूछब बात। कबहुँ पयोधर देइब हाथ।।
                                            कत  दिन लेइ बैठाइब कोर। कत दिन मनोरथ पूरब मोर।।

                इसी प्रकार एक अन्य युवती को प्रियतम के प्रवास का उतना अधिक दुःख नहीं जितना उसे अपने यौवन के व्यर्थ बीत जाने का है ~~

                                        अंकुर तपन ताप जदि जारब , कि करब वारिद मेहे। 
                                        यह नव जीवन विरह गमाओब ,कि करब से पिया गेहे।।

                 अर्थात  जब सूर्य के ताप से  अंकुर  जल जायगा तो फिर मेघ की वर्षा से क्या लाभ होगा। यदि इन नवयौवन को विरह में  खो दिया तो फिर उस प्रिय के घर आने पर क्या होगा ?
किन्तु दूसरी श्रेणी की प्रौढ़ा नायिकाएं ऐसा नहीं सोचतीं। उनमें यौवन की चंचलता एवं वासना के वेग के स्थान पर प्रणय की गंभीरता मिलती है। अतः वे पति के स्थूल मिलन की अपेक्षा ,उनके स्नेह की अधिक इक्षुक हैं ~~

                                          सब कर एहु परदेश बसि सजनी ,आयल सुमिरि सिनेहू। 
                                           हमर एहन पति निरदय सजनि ,नहिँ  मन बाढ़ए नेह।।

                   यहाँ नायिका के पति के न आने का उतना खेद नहीं है ,जितना कि उसके प्रेम-शून्य हो जाने का है।   आगे चलकर  यही नायिका अपनी विरह -वेदना की अपेक्षा  प्रिय  के मंगल को अधिक   महत्व देती है ~~

                                         माधव   हमरो  रहल   दुर  देश ,केओ   न   कहे  सखि  कुशल सनेस। 
                                         जुग -जुग  जिवथु  वसथु  लख कोस ,हमर अभाग , हनक नहिं दोस।।

                 वस्तुतः यहाँ भावना का ऐसा उत्कर्ष दिखाई पड़ता है जिनसे नायिका के अहं ,स्वार्थ एवं काम का सर्वथा विगलन हो जाता है तथा उसका प्रणय विशुद्ध प्रेम के रूप में परिवर्तित हो जाता है।
         (लेखक : अशर्फी लाल  मिश्र )
कबीर की  विरहानुभूतियाँ :
                   कबीर की आत्मा, परमात्मा के मिलन के लिए उत्सुक हो जाती है तो उसकी व्ही अवस्था हो जाती है ,जो लौकिक क्षेत्र में प्रेमी की पूर्वानुराग में होती है। ~~

                                                 कब देखूँ मेरे राम स्नेही ,जा बिनु दुःख पावे मेरी देही। 
                                                हूँ तेरा पंथ निहारूँ स्वामी,  कबरे मिलहुगे अन्तरजामी।।

                        आत्मा की यह मिलन आकांक्षा धीरे -धीरे बढ़ती हुई तीव्र वेदना का रूप धारण कर लेती है। वह अपने ह्रदय के वेग पर संयम रखने में असमर्थ हो जाती है और अपने प्रिय को पुकार -पुकार कर बुलाने लगती है ~~

                                                  बाल्हा आव  हमारे गेह   रे ,तुम बिनु दुखिया देह रे। 
                                                 +                             +                                     +
                                                  एकमेक   ह्वै  सेज  न सोवै, तब  लग  कैसा नेह रे। 
                                                  अन्न न भावै ,नींद न आवै ,ग्रिह वन धरे न धीर रे। 
                                                 बाल्हा आव हमारे गेह रे -------। 

                  कबीर की विरह -व्यंजना में विभिन्न संचारी भावों का चित्रण भी अत्यंत स्वाभाविक रूप में हो गया है।
कुछ  उदहारण द्रष्टव्य हैं ~~

                                बिरहिन ऊभी पंथ सिर ,पंथी बूझै धाय। एक सबद कह पीव का ,कबरे मिलेंगे आइ। 
                                आइ सकौं न तुज्झ  पैं ,सकूँ न तुज्झ बुलाय। जियरा योंही लेहुगे ,विरह तपाइ -तपाइ।।
                                कै विरहिणी कु मीच दे ,कै आपा दिखलाइ। आठ पहर का दाझणा मो पै सह्या न जाइ।।

               कबीर जैसा अक्खड़ भी विरह -वेदना से पीड़ित होकर दैन्य से ओत -प्रोत हो जाता है। वह जन -जन के सामने  हाथ फ़ैलाने लगता है ~~

                              है कोई ऐसा पर उपकारी ,सूं  कहे सुनाय रे। ऐसे हाल कबीर भये हैं ,बिन देखे जि जाय रे।।

              वे दूसरों की स्थिति सेअपनी तुलना करते हुए कहते हैं ~~

                                   सुखिया सब  संसार ,खाय अरू  सोवै , दुखिया दास कबीर है ,जगे अरु रोवै।।
                                                                               
                                                                   
जायसी का विरह -वर्णन :

                      जायसी ने तो अपने काव्य में विरहानुभूतियों की व्यंजना एक ऐसी उत्कृष्ट अत्युक्तिपूर्ण काव्य शैली में की है कि उससे विद्वानों को अलौलिकता का भ्रम हो गया। पूर्वानुराग और वियोग का चित्रण जायसी ने पुरे विस्तार से किया है। उन्होंने विरहानुभतियों की व्यंजना के लिए मुख्यतः  दो पात्रो को माध्यम बनाया है। पहला रत्नसेन और दूसरा नागमती। रत्नसेन के पूर्वानुराग की दशा का चित्रण ;

                                                        फूल फूल  फिरि पूछों ,जो  पहुँचौ  आहि केत। 
                                                       तन निछावर के मिलों ,ज्यों मधुकर जिउ देत। 

                  और फिर इसका विकास ~~

                                                  तजा राज राजा भा जोगी।और किंगरी कर गहेउ वियोगी।।
                                                  तन विसंभर मन बाउर रटा। अरुझा प्रेम   परी सिर जटा।।

                रत्नसेन की विरह -दशा का निरूपण करते हुए कवि  ने विभिन्न अनुभावों और संचार  भावों का आयोजन भी सम्यक रूप से किया गया है ~~

                                              ठाँवहि   सोवहि   सब चेला। राजा   जागै   आपु  अकेला।।
                                             जेहि के हिये प्रेम रंग जामा। का तेहि भूंख नींद बिसरामा।।

               दूसरी ओर नागमती की विरह -व्यंजना भी कवि ने अत्यंत मार्मिक शब्दों में की है। कुछ पंक्तियाँ आगे दृष्टव्य हैं:

                                             पिऊ   सौ   कहेउ   संदेसडा , हे   भौंरा ! हे काग ! 
                                             सो धनि विरह जरि मुई ,तेहिक धुआँ हम्ह लाग।।

                 जायसी के विरह -वर्णन की सबसे बड़ी विशेषतः यह है कि उन्होंने नायक और नायिका दोनों में विरह का विकास समुचित रूप से दिखाया है, जिससे उसमें प्रेम की गम्भीरता दृष्टिगोचर होती है।
 (लेखक : अशर्फी लाल  मिश्र )
सूर का विरह -वर्णन :

                  सूर ने कृष्ण और गोपियों के गोपियों के माध्यम से विरहानुभूतियों की की व्यंजना अत्यन्त सरस  रूप में की है। वियोग की आशंका -मात्र से प्रेम - विवश गोप -बाला राधा के ह्रदय की क्या दशा हो जाती है ,इसका चित्रण देखिये ~~

                                                सुने हैं श्याम मधुपुरी जात। 
                                                सकुचति कह न सकत काहू सौं ,गुप्त ह्रदय की बात। 
                                                शंकित बचन अनागत कोऊ ,कहि जु गई अधरात। 
                                                +                              +                                 +
                                                सूर श्याम संग तै बिछुरत हैं ,कब ऐहैं कुशलात।।

                     और जब विदाई की घड़ियाँ उपस्थित होतीं हैं ,तो प्रेमिका का ह्रदय सौ -सौ धाराओं में बह  निकलता है ~~

                                             हौं साँवरे के  संग जैहौं। 
                                             होनी होइ सु होई उभै लै यश ,अपयश काहू न डरैहों । 
                                           कहा रिसाइ करैगो कोऊ ,जो रोकिहै प्राण ताहि दैहों।।

                     जब प्रियतम बिदा  हो जाते हैं ,तो वियोगिनी बाला के ह्रदय में क्षोभ ,पश्चाताप एवं निराशा की करुण झाँकी  अवशिष्ट रह जाती है~~

                                      हरि बिछुरत फाट्यो न हियो। 
                                      भयो कठोर बज्र ते भारी ,रहि कैं पापी कहा कियो। 
                                     घोरि हलाहल सुन री सजनी ,औसर तेहि न पियो। 
                                     मन सुधि   गई  भारित   पूरी   दाँव अक्रूर    दियो। 
                                     कुछ न सुहाइ गई सुधि तब ते ,भवन काज को नेम लियो। 
                                     निशि दिन रटत सूर के प्रभु बिनु ,मरिबो तऊ न जात जियो।। 
  
                                                                             
                                                                          मीराबाई 

मीरा का विरह -वर्णन :

                 प्रेम - दीवानी मीरा ने अपने ह्रदय के उद्गारों को मर्मस्पर्शी शब्दों में व्यक्त किया है अपने " गिरधर गोपाल "
के विरह में भावाभिभूत होकर उन्होंने  शत -शत गीतों की रचना की है। कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य ~~

                                           हेरि मैं तो दरद दिवाणी होइ ,दरद न जाणैं मेरो कोइ। 
                                           घायल की गति घायल जाणै ,को    जिण   लाई होइ।   
                                          जोहरि की   गति जौहरी जाणै ,की जिन जौहर  होइ।।
                                           सूली   ऊपर सेज हमारी ,सोवणा   किस   बिध   होइ। 
                                           गगन मंडल पै सेज पिया की ,किस बिध मिलणा होइ। 
                                           +                             +                                      +

                                          रमैया बिन नींद न आवै।   
                                          नींद न आवै विरह सतावै ,प्रेम की आंच डुलावै। 
                                           +                               +                      +

                                          कहा करूँ कित जाऊँ मोरी सजनी , वेदन कुंर्ण बुतावै। 
                                           बिरह नागण मोरी काया डसी है ,लहर -लहर जिवयावै। 
                                          +                                       +                                +
                                          मीराँ कहै बीती सोइ जानै ,मरण जीवण उन हाथ। 
  • मीरा बाई की इन पंक्तियों में विरह -वेदना की ऐसी गंभीरता मिलती है ,जो बरबस ही पाठक के ह्रदय को भावोद्वेलित करने में समर्थ है। लौकिक प्रेम की वासना के अभाव में उनका वेदना स्वरुप और भी अधिक दिव्य और पवित्र हो गया है।                                                                 
(लेखक :अशर्फी लाल मिश्र )

रीतिकालीन कवियों का विरह -वर्णन :

                       रीतिकाल में विरह -व्यंजना का सर्वोत्कृष्ट रूप घनानन्द ,बोधा ,रसखान आदि स्वतंत्र प्रेम-मार्गी कवियों के काव्य में मिलता है। इनके विरह वर्णन में जो वैयक्तिकता ,अनुभूति, स्वाभाविकता एवं गंभीरता मिलती है, वह  अन्यत्र  दुर्लभ है। उदहारण के लिए ~~

                                           घनआनंद मीत सुजान बिना ,सब -सुख साज समाज टरे। 
                                          तब हार पहाड़ से लागत है ,अब आनि के बीच पहार परे।।~~ घनानन्द 

                                          कहिबे को बिथा सुनिबे को हँसी ,को दया सुनि के उर आनतु है। 
                                          अरु पीर घटे तजि धीर सखी !दुःख को नहीं का पै बखानतु है।।~~ बोधा 

                                                                          
                                                                               कवि रसखान 

                                                                            
                                   उन्हीं बिन ज्यों ,जल मीन ह्वै ,मीन सी आँखि मेरी असुवानी रहे। ~~ रसखान 

                 वस्तुतः इन कवियों ने किसी अन्य पात्र से विरह -वेदना उधार लेकर काव्य -रचना नहीं की। यह तो उनकी अपनी अनुभूतियों की व्यंजना है ,उनकी आत्मा की सच्ची पुकार है।


आधुनिक काल के कवियों का विरह -वर्णन :

                      विरह -वर्णन की दृष्टि से भारतेन्दु हरिश्चन्द्र तथा उनके सहयोगी कवि स्वतन्त्र प्रेम -मार्गी कवियों ~~ घनानन्द ,बोधा आदि  की परम्परा में आते हैं। भाव ,भाषा और शैली की दृष्टि से उनका विरह -वर्णन सर्वथा घनानन्द आदि के अनुरूप है।
द्विवेदी -युगीन कवियों ने अपने सुधारवादी दृष्टिकोण के कारण श्रृंगार रस को बहुत उपेक्षा की दृष्टि से देखा ,किन्तु फिर भी प्रिय - प्रवास ,यशोधरा ,साकेत आदि में विरह की व्यंजना प्रचुर मात्रा में हुई है। प्रिय-प्रवास में कृष्ण -विदाई की बेला के समय राधा के ह्रदय की आशंका का चित्र देखिये ~~

                                           अयि  सखि ! अवलोके खिन्नता तू कहेगी ,
                                           प्रिय स्वजन किसी के क्या न जाते कहीं हैँ। 
                                          पर   ह्रदय न  जाने   दग्ध   क्यों हो रहा है ?
                                           सब   जगत  हमें है   शून्य होता दिखाता।।

                  मैथिलीशरण  गुप्त  की साकेत  की रचना तो विरहणी उर्मिला के आँसुओं से ही हुई है। स्वयं उर्मिला के ही  शब्दों में ~~

                                     मुझे फूल मत मारो। 
                                    मैं अबला बाला वियोगिनी कुछ तो दया विचारो। 

                  प्रसाद के आँसू  ,पंत  की ग्रन्थि और महादेवी की यामा  और  दीपशिखा में विरहानुभूतियोँ की व्यंजना वैयक्तिक अनुभूति के रूप में हुई है। पंत के विरह -कातर ह्रदय की दशा इन शब्दों में देखिये ~~

                                      कौन दोषी है ,यही तो न्याय है ,वह मधुप बिंधकर तड़पता है उधर। 
                                     दग्ध चालक तरसता है ,विश्व का नियम है यह ,रो अभागे ह्रदय रो।

                   कमायनीकार ने भी विरह की व्यंजना अत्यंत मार्मिक शब्दों में की है। अपने अतीत की स्मृतियों से त्रस्त होकर श्रद्धा सोचती है ~~

                                     विस्मृत हो  बीती  बातें ,अब  जिनमें कुछ सार  नहीं। 
                                     वह  जलती छाती न रही ,अब वैसा शीतल प्यार नहीं।।
                                     सब अतीत में लीन हो चलीं ,आशा ,मधु अभिलाषाएँ। 
                                     प्रिय की निष्ठुर विजय हुई ,पर यह तो मेरी हार नहीं।।

                                                                                

                                                                कवियत्री महादेवी  वर्मा 

                          कवियत्री महादेवी तो वेदना की साक्षात् मूर्ति ही हैं। उनके काव्य की प्रत्येक पंक्ति विरहानुभूतियों से उद्वेलित है। विरह की मधुर पीड़ा का संचार उनके जीवन में किस प्रकार हुआ ,इसका स्पष्टीकरण भी उनहोंने किया है ~~

                                             इन ललचाई पलकों पर ,पहरा था जब व्रीड़ा का। 
                                             साम्राज्य मुझे दे डाला ,उस चितवन ने पीड़ा का।

                        किन्तु अन्त में उन्होंने अपनी वेदना पर ऐसी विजय प्राप्त कर ली है कि अब उन्हें विरह में मिलन की , न दुःख में सुख की अनुभूति होने लगी है ~~

                                            विरह का युग आज दीखा ,मिलन के लघु पल सरीखा। 
                                           दुःख सुख में कौन तीखा ,मैं न जानी और  न सीखा।।

                        प्रगतिवादी कवियों में यत्र -तत्र विरह का वर्णन मिलता है ,किन्तु उसमे अनुभूति की तरलता ,वेदना की गंभीरता और प्रेम की स्थिरता का अभाव है। कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं ~~

                                             शीतल कर धरती की छाती। नदियाँ सागर में मिल जातीं। 
                                            नदियों में जल ,जल में लहरें। गलबहियाँ डाले बल खातीं। 
                                            भरता जो बाँहों में अपनी। हुआ न तेरा ही कोई। ~~ नरेंद्र 

                         हिंदी काव्य के सभी युगों में विरह का निरूपण किसी न किसी रूप में अवश्य हुआ है।
(लेखक ;अशर्फी लाल मिश्र )


विप्र सुदामा - 39

लेखक एवं रचनाकार : अशर्फी लाल मिश्र, अकबरपुर, कानपुर। अशर्फी लाल मिश्र (1943---) प्रिये तुझे  मुबारक तेरा महल, मुझको प्रिय  लागै मेरी छानी। ...