कवि : अशर्फी लाल मिश्र
अशर्फी लाल मिश्र |
[इस लीला सप्तक में 7 कवितायेँ संकलित हैं ]
[ 1 ]
यमुना तट पर बजे बसुरिया ,
गोपी दौड़ी दौड़ी जाय।
चाँद बिखेरे पूरी शोभा,
कान्हा रास रचाये जाय।।
मैं भी जाना चाहूँ उस यमुना टट पर,
जहां कान्ह की बजती बसुरिया हो।
मैं भी चाहूँ उस रज में लोटूँ,
जँह पर रास रचाया हो।।
आज भी चाहूँ प्रेम रस में डूबूँ ,
पाषांण हृदय में प्रेम रस रिसता नहीं।
`लाल ‘ की लालसा धरी रही ,
कभी प्रेम का अंकुर फूटा नहीं ।।
[ 2 ]
बांसुरी हमारी बैरिन है,
कान्ह को अति ही प्यारी लगै।
सूखे बांस की बांसुरी वह,
हमरे दिल को जलाय रही।।
वह बांसुरी हमारी सौतन है ,
कभी अलग अधर से होती नहीं।
अधरामृत का वह पान करै,
हम दूर खड़ी ह्वै देख रही।।
कान्ह की भृकुटी देख लगै,
मनो हम पर क्रोध कराय रही।
हमने सोचा कान्ह हमारे ,
कुल कानि को छोड़ दौड़ गयी।।
हम दौड़ पड़ी जहाँ कान्ह खड़े,
अधर बसुरिया लोटी थी।
कान्हा उसके पेर दबायें ,
हमरे दिल को जलाय रही थी।।
[3]
वंशी की धुनि अति दुख दाई,
माई कोई जाये बरजै कन्हाई।
हम तो विलोय रही मटकी में दही,
उधर कान्हा ने मुरली बजाई।
माई वंशी की धुनि सुनि,
तेजी से मथनी चलाई।
माई फूट गई मटकी बरजौ कन्हाई,
कोई न जाये हम ही जाती बरजन कन्हाई।
घर घर से दौड़ रहीं गोपियाँ दुखियारी,
पहुँच गई गोपियाँ जहाँ बांके बिहारी।
[ 4 ]
आ गयो नाग यमुना में,
मचा है शोर गोकुल में।
कैसे पीहैं गायें जल,
कैसे नहायें ग्वाल बाल।।
भीड़ जुटी थी नन्द के द्वारे,
उदास चेहरे भय के मारे।
गायें बंधी थी गौशाला में,
नहीं गईं थी जंगल में।।
छायी उदासी चारों ओर,
कान्हा दौड़े यमुना ओर।
पीछे दौड़ी मातु यशोदा,
पीछे दौड़े सखा वृन्द।।
पीछे पीछे गोकुलवासी,
सबके पीछे बाबा नन्द।
यमुना तट पर पहुँचे कान्हा,
देखा नाग फन फैलाये।।
कूद पड़े कान्हा यमुना में,
भय से ग्वाला चिल्लाये।
क्षण भर में कान्हा जल ऊपर,
एक पैर था नाग के फन पर।
नाग नथा था नाग मरा था,
फिर भी लोगों में भय था।
कान्हा ने नाग हवा में लहराया।
`लाल` का भय तब दूर हुआ।।
[ 5 ]
खेलत खेलत एक दिवस,
कान्हा पहुँचे वृषभानु गली।
देख दुवारे वृषभानु खड़े ,
कान्हा पूँछै वृषभानु लली।।
कान्हा द्वार पुकार रहे ,
बाहर आओ मेरी लली।
बाहर आई वृषभानु लली,
खेलन चलिहौ मेरी गली।।
ताहि समय अधराधार धरि वंशी ,
गूँज गई वृषभानु गली।
आगे आगे कान्हा चलि रहे ,
पीछे पीछे वृषभानु लली।।
[ 6 ]
जब तक अधरन पर वंशी ,
कान्हा करहि न कोई बात ।
कैसे होय विलग अधरन से,
कैसे हो कान्हा से बात ।।
व्याकुल हो गई गोपी जब ,
अवसर पाइ छिपाई वंशी।
कान्हा दौड़े दौड़े ढूंढै ,
कहाँ गई है मेरी वंशी।।
हर गोपी से पूंछ रहे हैं,
कहुँ देखी है मेरी वंशी।
हंस बोली वृषभानु कुमारी ,
‘लाल’ तुम्हारी क्या यह वंशी।।
मचल गये हैं कान्हा तब,
दे दे मेरी प्यारी वंशी।
पहले ठुमुक करौ नर्तन ,
तब दैहौं तेरी वंशी।।
[ 7 ]
अंगना में ठुमुक चलहिं अवध विहारी।
मातु कौशल्या हर्षित होइ दै दै तारी।।
छुद्र घंटिका कमर करधनी।
पैर में बाजै पैजनियाँ।।
दौड़े दौड़े अंगना घूमैं पीछे पीछे महरानी।
माता लेइ बलैयां आज गोद उठाये रानी।।
गले में सोहै ‘हाय ‘ हेम की माला।
भाल में टीका लगा था काला।।
अँचरा ढकि माई दूथ पिलाये।
डरपि रही नजर न लागै लाला।।
© अशर्फी लाल मिश्र ,अकबरपुर,कानपुर देहात।
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