ॐ
द्वारा : अशर्फी लाल मिश्र
अशर्फी लाल मिश्र |
करना चाहूँ समाज सेवा, जैसे करता सागर।
बदले में बिन कुछ चाहे ,जैसे तत्पर सागर।।
सागर रत्नों की खान, नहीं कोई अभिमान।
धरती झुलस रही हो ,तरनि उगले आग।।
तब पवन संदेशा देय, समाज सेवी सागर।
सागर वेश बदलकर , साथ पवन जाकर।।
श्याम रूप धर , घनघोर वारिश कर।
तपन धरती की, शांत करता सागर।।
पुलकित धरिणी कहती, धन्य धन्य सागर।
तुझ सा नहिं समाजसेवी,धन्य धन्य सागर।।
©कवि : अशर्फी लाल मिश्र, अकबरपुर, कानपुर।
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(०३-०९-२०२१) को
'खेत मेरे! लहलहाना धान से भरपूर तुम'(चर्चा अंक- ४१७७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
प्रविष्टि के लिए बहुत बहुत आभार।
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