© अशर्फी लाल मिश्र
अशर्फी लाल मिश्र |
हम हारे तुम जीते गुसैयां,
अब काहे की टेक,नाथ काहे की टेक।
रात दिवस हम पुकार रहे,
तब भी दरश नाहीं गुसैयां।
पुकारत पुकारत छाले जीभ,
अब तो दरश देव गुसैयां।
हम हर विधि आज अनाथ,
आपहिं नाथ हमारे गुसैयां।
रात दिवस अपलक निहारूँ,
किस क्षण आवें हमारे गुसैयां।
आपहिं जनक आपहिं जननी,
आपहिं गुरुवर मेरे गुसैयां।
जग में है सब कुछ झूँठा ,
आपहिं एक सत्य गुसैयां।
इस पातक को नाथ उबारो,
दीजै शरण मेरे गुसैयां।
©अशर्फी लाल मिश्र , अकबरपुर,कानपुर।
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार (20-05-2021 ) को 'लड़ते-लड़ते कभी न थकेगी दुनिया' (चर्चा अंक 4071) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
बहुत बहुत आभार। साधुवाद यादव जी।
हटाएंवाह।
जवाब देंहटाएंसाधुवाद।धन्यवाद।
हटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंहृदय से आभार।
हटाएंलाजवाब
जवाब देंहटाएंसाधुवाद।आभार।
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद।
हटाएंअति सुंदर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।
हटाएंबहुत सुंदर भजन
जवाब देंहटाएंआग्रह है मेरे ब्लॉग को भी फॉलो करें
आभार।
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