-अशर्फी लाल मिश्र
अशर्फी लाल मिश्र |
निः स्पृह
अधिकार पाकर कोई, निः स्पृह कैसे कोय।
जिमि श्रृंगार प्रेमी नर, अकाम नाही होय।।1।।
द्वेष
मूरख द्वेष सदा बुध सो, रंक धनी से मान।
परांगना कुलीना सो, विधवा सधवा जान।।2।।
रक्षण
धन से रक्षित धर्म होय, योग से रक्षित ज्ञान।
भली नारि से घर रक्षित, मृदुता से श्रीमान।।3।।
--अशर्फी लाल मिश्र, अकबरपुर, कानपुर।
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (03-06-2022) को चर्चा मंच "दो जून की रोटी" (चर्चा अंक- 4450) (चर्चा अंक-4395) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार.
हटाएंसुन्दर दोहे
जवाब देंहटाएंआभार आप का।
हटाएंबहुत सुन्दर दोहे ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया।
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