Asharfi Lal Mishra |
देखने में थी सरल ,
लगती थी भोली भाली।
कमर उसकी झुकी हुई,
उम्र उसकी ढली हुई।
गाल थे उसके पिचके ,
आँखे उसकी धंसी हुई।
उसका भी था एक बेटा,
बहुत दिनों से घर नहीं लौटा।
अब घर में लगती जेल ,
समझा उसने नियत का खेल।
हाथ में एक लाठी ली ,
कंधे पर झोली डाली।
निकल पड़ी अनंत पथ पर,
पहुंची थी वह गंगा तट पर।
हाँथ जोड़ कर खड़ी हुई थी,
माँ मुझको गोद में ले लो।
पीछे से आया उसका बेटा,
माँ के चरणों में था लेटा।
माँ उसके गले लिपट गई,
मानो खोई निधि मिल गई।
© कवि : अशर्फी लाल मिश्र , अकबरपुर ,कानपुर।
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